गीत 
मैं तुम्हारे गाँव आ तो जाता  मगर -
हर तरफ ही काली घटा घिर रही है |
    शोर है अब शीघ्र अदभुत भोर होगी ,
    तम ज़रा सा भी न धरती पर बचेगा |
   
हर तरफ सुख की विमल गंगा बहेगी , 
   
पर्व जैसा द्रश्य पग पग पर  दिखेगा
|
मैं हर कथन को मान लेता सच मगर -
न तो भ्रमित  है चेतना न डर रही है |  
    सच
जिसे सब देव-गुण कहते थे कभी -    
    झूठ
के प्रश्रय में बेबस जी रहा है |
    आदमी
सब भूल कर आदर्श अपने ,
    ईर्ष्या औ द्वेष का विष पी रहा है |
 मैं समय के संग बदल तो जाता मगर ,
पूर्वजों की सीख अड़चन कर रही है |
    कितने
जनम बाद मानव तन मिला है , 
    क्या
इसे मैं यूँ ही तार तार कर दूँ |
    आंसुओं
से हर घड़ी जिसको संवारा ,  
    ये तन का दुशाला दागदार कर  दूँ |  
मैं स्वार्थी जीवन बिता तो लेता मगर -
हर सांस में इंसानियत भर रही है |
आलोक
सिन्हा 
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बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आभार खरे जी
जवाब देंहटाएंAlok ji behad gehari hai har pankti, daad kabool karein, dhanyawaad
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार धन्यवाद डॉन जी
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