सोमवार, 8 जुलाई 2024

नभ से भी दूर लगते हो

 

नभ से भी दूर लगते हो

         ह्रदय में हर पल तुम बसे हो फिर भी ,

           नयन को नभ से भी दूर लगते हो ।

 

तुम सा न अपना सृष्टि में कोई ,

निशि दिन दरस की नित कामना है ।

मीरा की अविचल लगन ह्रदय में ,

शबरी सी जगी दृढ़ भावना है ।

 

          मिलना कठिनतम , फिर भी आत्मा को ,

          तुम्हीं तिलक - चन्दन, सिंदूर लगते हो  |   

 

चाँदनी से नित संदेश भेजे ,

मेघों द्वारा सौ दिए निमन्त्रण ।

मलय खगों को भी दायित्व सौंपा ,

कब कौन जाने कर दे द्रवित मन ।             

 

          नित बुलाया , पर न तुम आये फिर भी  ,

         सदैव अपने , बेकसूर लगते हो ।

 

प्रात न खिलता , न हँसती कुमुदनी ,

नदी , वन , पथों पर सूनापन है ।

भ्रमर उदास, कोयल मौन बैठी ,

निष्प्राण हो गया वृन्दावन है ।

 

            जब से गए तुम घिरा घोर अँधेरा ,

           तुम ही मन के बृज का सूर लगते हो  |

आलोक सिन्हा 



14 टिप्‍पणियां:

  1. विरह की प्रखरता और प्रेम की अखंडता का सुंदर चित्रण करती भावप्रवण रचना आदरणीय सादर

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    1. अभिलाषा जी बहुत बहुत धन्यवाद आभार सुन्दर टिप्पणी के लिए

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  2. मिलना कठिनतम , फिर भी आत्मा को ,
    तुम्हीं तिलक - चन्दन, सिंदूर लगते हो | ,,,,,, सुंदर रचना हमेशा की तरह, आदरणीय शुभकामनाएँ

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  3. बहुत संवेदरशील अभिव्यक्ति।

    काफी अंतराल के बाद हिंदी ब्लॉग टटोलने निकला हूँ। देख कर अच्छा लगा कि हिंदी के कॉफी ब्लॉग्स एक्टिव है और उनमें से ज्यादातर नए दिखते है। यह हिंदी ब्लॉगिंग और भाषा के सुखद भविष्य को आशान्वित करता है।
    लिखते रहिए.... शुभेच्छा सहित.... :)

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  4. मिलना कठिनतम , फिर भी आत्मा को ,

    तुम्हीं तिलक - चन्दन, सिंदूर लगते हो |
    वाह!!!
    वाकई प्रेम की अखण्डता !
    बहुत ही सुन्दर लाजवाब सृजन ।

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