नभ से भी दूर लगते हो
ह्रदय में हर पल तुम बसे हो फिर भी ,
नयन को नभ से भी दूर लगते हो ।
तुम सा न अपना सृष्टि में कोई ,
निशि दिन दरस की नित कामना है ।
मीरा की अविचल लगन ह्रदय में ,
शबरी सी जगी दृढ़ भावना है ।
मिलना कठिनतम , फिर भी आत्मा को ,
तुम्हीं तिलक - चन्दन, सिंदूर लगते हो |
चाँदनी से नित संदेश भेजे ,
मेघों द्वारा सौ दिए निमन्त्रण
।
मलय खगों को भी दायित्व सौंपा ,
कब कौन जाने कर दे द्रवित मन ।
नित बुलाया , पर न तुम आये फिर भी ,
सदैव अपने , बेकसूर लगते हो ।
प्रात न खिलता , न हँसती कुमुदनी ,
नदी , वन , पथों पर सूनापन है ।
भ्रमर उदास, कोयल मौन बैठी ,
निष्प्राण हो गया वृन्दावन है ।
जब से गए तुम घिरा घोर अँधेरा ,
तुम ही मन के बृज का सूर लगते हो |
आलोक सिन्हा
विरह की प्रखरता और प्रेम की अखंडता का सुंदर चित्रण करती भावप्रवण रचना आदरणीय सादर
जवाब देंहटाएंअभिलाषा जी बहुत बहुत धन्यवाद आभार सुन्दर टिप्पणी के लिए
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आभार
हटाएंबहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आभार
हटाएंमिलना कठिनतम , फिर भी आत्मा को ,
जवाब देंहटाएंतुम्हीं तिलक - चन्दन, सिंदूर लगते हो | ,,,,,, सुंदर रचना हमेशा की तरह, आदरणीय शुभकामनाएँ
मधुलिका जी बहुत बहुत धन्यवाद आभार
हटाएंबहुत संवेदरशील अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंकाफी अंतराल के बाद हिंदी ब्लॉग टटोलने निकला हूँ। देख कर अच्छा लगा कि हिंदी के कॉफी ब्लॉग्स एक्टिव है और उनमें से ज्यादातर नए दिखते है। यह हिंदी ब्लॉगिंग और भाषा के सुखद भविष्य को आशान्वित करता है।
लिखते रहिए.... शुभेच्छा सहित.... :)
बहुत बहुत धन्यवाद आभार
हटाएंलाजबाब सृजन
जवाब देंहटाएंमनोज जी बहुत बहुत धन्यवाद आभार
हटाएंमिलना कठिनतम , फिर भी आत्मा को ,
जवाब देंहटाएंतुम्हीं तिलक - चन्दन, सिंदूर लगते हो |
वाह!!!
वाकई प्रेम की अखण्डता !
बहुत ही सुन्दर लाजवाब सृजन ।
सुधा जी बहुत बहुत धन्यवाद आभार
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